सर्दी के मौसम के जाती अउ गरमी के आती के बेरा एक संधिकाल आय। ये संधिकाल के मौसम के ‘काय कहना?’ ठंड के सिकुड़े देह मौसम के गर्माहट म हाथ गोड़ फैलाए ले लग जथे। खेती के काम निपट जथे। चार महीना बरसात अउ चार महीना ठंड म असकटाए मनखे, खेती के काम ले थके मनखे निखरे घाम म बाहिर आथे त बदलत मौसम म पेड़ पौधा के अटियई ल देखके झूमे ले लग जथे।
मौसम के मस्ती के बाते अलग रहिथे। बसंत के बासंती रंग ओढ़े प्रकृति नाचत रहिथे। खेत म सरसों के फूल के चादर बिछे रहिथे। ममहावत खेत ह सब ल मता देथे। टेसू पलास के चटक लाल रंग सब ल मोह डारथे। तभे तो किसन भगवान ह घलो ये मौसम म गोपी मन संग माते रहिस हे। चाराें डाहर ढोल-नंगाड़ा के अवाज ह सब ल अउ मदमस्त कर देथे। ये होली के तिहार अइसने मौसम म आथे तो सब ये हवा, ये मस्ती म माते रहिथे। चारों डाहर ये मौसम अउ बसंत बयार ह मनखे ल उल्लासित कर देथे। अइसना मौसम अउ फागुन के महीना, होरी के तिहार, ढोल-नंगाड़ा के अवाज के संग म जब रंग के बरसात होथे। तब मनखे ह बिन भांग खाये नसा म बुड़ जथे। ये नसा आय बसंत संग रंग के, ये मादकता आय फूल के खुशबू के मंद के, ये मस्ती आय बासंती हवा के। येला देय के काम करथे फागुन के महीना। चैइत ले फागुन तक मनखे अपन काम म लगे रहिथे। जम्मो साल ह जब गुजरथे त वहू ह सोचत होही कुछ तो देवंव जेखर ले साल भर के दुख-दरद ल मनखे ह भुला जाय। मन के पीरा लड़ाई-झगड़ा, भेदभाव ल भुला के एक हो जाये।
ये बसंत ह अइसने एक वातावरन बना दिस अउ खुसी के अइसना रंग भर दिस के सब ऐमा गंवागे। ये दिन रहिस हे होली के फागुन महीना के आखिरी दिन। ये दिन होलिका के नाव ले होली होईस के अउ कुछु कारन ले ये जादा सोचे के नोहय। पंजाब म ये दिन होला भूंजे के तिहार घलो मनाए जाथे। ये दिन पौराणिक कथा के अनुसार शिवशंकर के तीसर नेत्र ह खुलथे अउ कामदेव ह मस्त हो जथे। ये काम के दहन के तिहार घलो आय। कामदेव ह संकर भगवान के समाधि ल भंग करे बर एक महीना ले जेन काम के प्रपंच करत रहिस हे ओखर नास होथे। कारन जेन भी राहय हर युग म ये तिहार मनाये गीस अउ ये ह सबके मन ल रंगीस।
जात, धरम, भेदभाव, ऊंच-नीच ले ऊपर उठके ये तिहार ह सब ल परेम म बोर देथे। करियाय मन ह होरी के रंग म रंग जथे। सब गला मिलथे। फेर कुछ साल ले करिया रंग के प्रयोग होवत रहिस हे। करियाये मनखे अउ काय सोचही। फेर ये मौसम, ये प्रकृति, ये तिहार धीरे-धीरे सबके मन ल फेर उार करत हावय। अउ ‘इकोफ्रेंडली’ रंग आगे हावय। इही तो हमर जुन्ना संस्कृति आय। जब घर म हमन पेड़, पौधा, फूल, पत्ती ले रंग बनावत रहेन। मनखे मन रंग-रंग के नवा-नवा रद्दा म जाके भटक के देख लीस अउ समझगे के संस्कृति अइसने नई बने हे। येमा जादा परिवर्तन ठीक नइये। हमर संस्कृति ले जुरे हावय, लाखों साल के निचोड़ आय आज के हमर तीज तिहार, खान-पान। येला छोड़े के परिनाम अच्छा नई होवय। रसायनिक रंग के नुकसान समझ म आगे अउ फेर हमर प्रकृति के गुस्सा ल सब देख लीन, समझलीन। अब प्रकृति के रंग एक बेर फेर बजार के सोभा बढ़ावत हावय। हमर घर के थारी म अउ अंगना म मुचमुचावत हावय। आज नौकरी के तलास म देस छूटत हावय। विकास के नाम म दाई-ददा छूटत हावय। विकास के नाव म प्रकृति बरत हावय। आज मनखे के सोच थोरिक लहुटत हावय ये बने बात आय। बिहनिया के भुलाय मनखे सांझ कन लहुटय त ओला भुलाय नई काहयं। चलव होरी के बधई, जुन्ना सोच के खुसी म जम के रंग खेलव।
सुधा वर्मा